इस जहाँ में कही..... या उस जहाँ में कभी....
आज गर तू होता तो तुझको आगोश में भरकर लाखों कहानियां सुनाता, हस्ता खिलखिलाकर तेरी चाहत में, और तू न होता गर पल भर भी साथ तो तेरी याद में सहम जाता तू आता मुस्कुराता हुआ, मैं उस हँसी में पिघल के फिर से उन बचपन की गलियों में खो जाता ! तेरी कलाही को अपने हांथो में पकड़ कर बैठा रहता, खेलता मैं तेरी जुल्फों से वो सर्दी की रात में होठों से होठों को मिलाए हुए सोते हम रात भर और सुबह मेरी होती तेरी खुशबू से ऐ काश की तेरी हर नाराज़गी पे मैं मचल उठता इतना लड़ता तुझसे की तू रो देती मेरे सामने और फिर मैं तड़पता इस आग में की मैंने जो किआ वो गलत किआ वो डर की तू छोड़ के न चली जाए तू अपने राज़ के खुले दरवाज़ों को डर के मुझसे बंद न कर दे तू कही मुझसे इतना न रूठ जाए के फिर लौट के न आए मैं आता तेरे पास तुझे मानाने और रोते हम साथ उस रात और इतने करीब आ जाते उस एक ही पल में जी लेते हुए वो सारे पल जो रोये थे हम भूलने हम बाँहों में बाहें दाल सो जाते... सच कह रहा हु मैं बहुत परेशां करता तुझे जाने न देता तुझे नज़रों से दूर एक पल भी सच कहता हु मैं, बहुत प्यार करती तू मुझको और उतनी ही नफरत भी