क्या समंदर भी कभी रोता होगा, किसी किनारे जब रेत बाँहों से फिसलती है उसकी... क्या समंदर भी कभी रोता होगा, किसी किनारे जब सूरज हर रोज़ उसके सीने में पिघलता होगा, क्या समंदर भी कभी रोता होगा यु तो बेहद मजबूर से है तेवर उसके, पर क्या वो भी कभी टूटता होगा, जैसे पिघलती है मोम आईने पे धीरे से हर कदम को सँभालते हुए, जैसे हार रही हो हर चाल के साथ, क्या समंदर भी कभी रोता होगा, किसी किनारे अपनी लहरों को मचलते देख क्या समंदर भी कभी रोता होगा किसी शायर की ग़ज़ल के जैसे जब कोई उसकी गहराई को छुटा है, अपनी तन्हाई पे क्या समंदर भी कभी रोता होगा, किसी किनारे... जैसे रुक गई हों ख्वाहिशें किसी मासूम की, वो तक़दीर के खेल पे क्या समंदर भी कभी रोता होगा, किसी किनारे कभी शाम को मैंने भी अपने गम समंदर में बहाएं हैं क्या उनको अपने पलकों में समेत के क्या समंदर भी कभी रोता होगा, किसी किनारे सोचता होगा मेरी गहराई में दफन हैं राज़ कितने... क्या उन कहानियों को दोहरा के अपने जेहेन में क्या समंदर भी कभी रोता होगा, किसी किनारे - Ashk
Comments
Post a Comment